chintan
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जग में फैला तिमिर घोर है,
कण-कण में है स्वार्थ भरा|
मानव मानव का वैरी अब,
यह सोच-सोच रो रही धरा||
ईर्ष्या-द्वेष भरा है सबमे,
भाई-चारा बीती बात|
मानव और मानवता ऐसे,
जैसे कंटक और कदली पात||
नैतिकता जख्म लिए तन पर,
है खोज रही एकांत निवास|
सज्जनता पूछ रही जग से,
अब कहा रहा सज्जन का वास||
कलयुग देखो फन फैलाये,
डसने को आया है,
फिर भी कहते हो डरो नहीं,
यह बुरे समय का साया है||
क्या यही मूल्य है जीवन का,
देखो यह जग धिक्कार रहा|
पूछो अपने अंतर्मन से,
क्या जीवन यह साकार रहा||
अब भी जागो करता अनुनय,
और आह्वाहन मैं जन-जन को|
छोटी छोटी लिप्सा छोडो,
साकार करो इस जीवन को||
प्राणी जग का हो भला सदा,
यदि जीवन का ध्येय बनाओगे|
कस्तूरी बनाकर महाकोगे,
धरती पर स्वर्ग बनाओगे||
ललित नारायण मिश्रा, गांधीनगर (गुजरात)
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