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वो बूढ़ा रामलाल,
निर्बल, कृशकाय,
चौक पर खड़े वट-वृक्ष के नीचे,
दो दिन पड़ा रहा असहाय,
बस एक रोटी कि आस में|
ये बाजार उसे देख न सका,
क्योंकि?
वह लालच कि अंधी और अंतहीन दौड़ में वयस्त था,
बाजार का हर आदमी,
दूसरे के आगे निकल जाने कि पीड़ा से त्रस्त था|
पर हाय रे मन!
अब भी उसे आस थी बाजार से निवाले की,
लेकिन जीवन ने चोला छोड़ा ऐसे,
जैसे सह न पाया हो वेदना,
उस निर्बल शारीर की|
उसके मरते ही,
व्यवसायी संघ ने जाँच की मांग की,
और बाजार ने रामलाल की दिलेरी के किस्से गाये,
पर जिसने जीवन के चालीस साल दिए,
शहर की सबसे उची दुकान को,
उस दुकान के मालिक सेठ धन्नामल,
उसकी बेबसी में काम न आये|
मीडिया ने खबर को हाथो-हाथ लिया,
और बाजार की संवेदनहीनता पर चर्चा की,
मीडिया पैनल पर बैठे समाजसेवी ने इसे समाज पर प्रश्नचिन्ह,
विपक्ष ने सर्कार की विफलता,
तो सरकार के प्रतिनिधि ने,
इसे विपक्ष की साजिस बताया|
अचानक खबर आयी,
बाजार ने इस घटना की जिम्मेदारी ली,
और व्यवसायी संघ ने अपनी गलती मानी है,
इसीलिए,
मृतात्मा का शाही जनाजा निकालकर,
प्रायश्चित करने की ठानी है|
पर काल का है प्रश्न,
सभ्य समाज से,
उसको मिला कितना सही वह न्याय था,
संवेदन शून्यता बाजार की कितनी उचित,
क्या यही बाजार का है न्याय-शास्त्र?
(ललित नारायण मिश्रा)
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